DNA ANALYSIS: Farmers Protest अपने रास्ते से भटका, खुली रेडीमेड Secularism की पोल
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DNA ANALYSIS: Farmers Protest अपने रास्ते से भटका, खुली रेडीमेड Secularism की पोल

Farmers Protest: हमारे देश के डिजायनर पत्रकारों और नेताओं ने ये फेक न्यूज फैलाने की भी कोशिश की, कि प्रदर्शनकारी की मौत पुलिस की गोली लगने से हुई है और कुछ देर के लिए ये खबर चारों तरफ छाई रही. लेकिन जब इस फेक न्यूज का गुब्बारा फूटा तो सारी सच्चाई सबके सामने आ गई और ये बात यहीं दब गई.

लाल किला पर धार्मिक झंडे की साजिश.

नई दिल्ली: कहते हैं कि नदी जब अपना रास्ता भटक जाती है तो वो विनाश ही लेकर आती है और किसानों का ये आंदोलन भी अपने रास्ते से काफी पहले ही भटक गया था. जिसे हम तीन प्वाइंट्स में समझते हैं.

पहली बात खुद को किसान बताने वाले इन लोगों ने दावा किया था कि उनका आंदोलन (Farmers Protest) धर्मनिरपेक्षता के विचार पर टिका है. ये केंद्र सरकार के कृषि कानूनों (Farm Laws) के खिलाफ है और इसका कोई दूसरा मकसद नहीं है. लेकिन 26 जनवरी को इस रेडीमेड सेकुलरिज्म की पोल खुल गई और लाल किले पर कुछ मुट्ठी भर लोगों ने एक खास धर्म का झंडा फहरा दिया.

किसान आंदोलन में निहंग की एंट्री क्यों?

दूसरी बात जब ये आंदोलन कृषि कानूनों के खिलाफ था तो फिर इसमें निहंग की एंट्री कैसे हुई? इसे समझने के लिए पहले आपका ये जानना जरूरी है कि निहंग कौन हैं?

निहंग वो सैनिक हैं, जिन्हें सिखों के छठवें गुरु हरगोबिंद सिंह और 10वें गुरु गोबिंद सिंह ने तैयार किया था. निहंग ज्ञान और शक्ति के प्रतीक माने जाते हैं और इन्हें समाज का रक्षक कहा जाता है. मुगलों के समय धार्मिक अपमान और अन्याय के खिलाफ लड़ना इनका मुख्य काम था.

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हालांकि ऐसा लगता है कि आज की परिस्थितियों में इनकी भूमिका बदली है. आपको याद होगा पटियाला में पिछले साल लॉकडाउन के दौरान बाहर निकलने से रोकने पर कुछ निहंगों ने कृपाण से पंजाब पुलिस के एक एएसआई का हाथ काट दिया था. 26 जनवरी को हिंसा के दौरान भी कुछ ऐसा ही हुआ और पुलिस को निशाना बनाया गया.

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गणतंत्र दिवस पर ही ट्रैक्टर परेड क्यों?

तीसरी बात जब आंदोलन सरकार के खिलाफ था तो गणतंत्र दिवस के मौके पर ही ट्रैक्टर परेड क्यों निकाली गई और क्यों देश को बदनाम करने की कोशिश हुई? क्या इससे ये साबित नहीं होता कि इस आंदोलन का मकसद देश की गलत छवि को दुनिया के सामने पेश करना था, जैसा किया भी गया. तो ये वो तीन डर थे, जिन्हें लेकर हमने पहले ही देश के लोगों को आगाह कर दिया था और हमारे ये डर सही साबित हुए.

हिंदी के प्रसिद्ध लेखक और व्यंगकार हरिशंकर परसाई ने कहा था कि धर्म अच्छे को डरपोक और बुरे को निडर बनाता है. किसान आंदोलन के दौरान यही हुआ.

प्रदर्शनकारी की मौत पर फैलाई गई फेक न्यूज

इस हिंसा में एक प्रदर्शनकारी की भी मौत हो गई, जो पुलिस द्वारा लगाए गए बैरिकेड तोड़कर लाल किले की तरफ बढ़ रहा था. लेकिन इस दौरान ट्रैक्टर पलटने से इस प्रदर्शनकारी की जान चली गई. इस पर हमारे देश के डिजायनर पत्रकारों और नेताओं ने ये फेक न्यूज फैलाने की भी कोशिश की, कि इस प्रदर्शनकारी की मौत पुलिस की गोली लगने से हुई है और कुछ देर के लिए ये खबर चारों तरफ छाई रही. लेकिन जब इस फेक न्यूज का गुब्बारा फूटा तो सारी सच्चाई सबके सामने आ गई और ये बात यहीं दब गई.

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लेकिन कल्पना कीजिए अगर पुलिस की गोली लगने से इस प्रदर्शनकारी की मौत हुई होती तो क्या होता? तो सुप्रीम कोर्ट इस मामले में तुरंत कार्रवाई करते हुए केंद्र सरकार को फटकार लगाता. दिल्ली पुलिस को नोटिस जारी करके पूछा जाता कि क्यों पुलिस आंदोलन को सही तरीके से हैंडल नहीं कर पाई. इसमें मानवाधिकार आयोग की एंट्री हो जाती. पुलिस के कई जवानों की नौकरी चली जाती.

हो सकता है कि इस पूरे मामले की जांच के लिए किसी रिटायर्ड जज की अध्यक्षता में कमिटी बना दी जाती और दिल्ली पुलिस को दिन रात 24 घंटे कोसा जाता. विपक्ष भी इसमें अपनी राजनीति ढूंढ ही लेता. ये होता अगर सही में पुलिस की गोली लगने से इस प्रदर्शनकारी की मौत हुई होती. लेकिन ऐसा नहीं हुआ और पुलिस के जवानों ने धैर्य और अनुशासन से काम लिया.

लेकिन अब आप खुद से ये पूछिए कि क्या आपने किसी को भी इन जवानों की तारीफ करते हुए देखा. क्या खुद को किसानों का नेता बताने वाले लोगों ने ये कहा कि पुलिस ने संयम से काम लिया और हिंसा पर नियंत्रण पाने में कामयाब हुई. क्या कांग्रेस ने दिल्ली पुलिस के जवानों की तारीफ की? और क्या सुप्रीम कोर्ट ने जवानों की पीठ थपथपाई, जो लाठी-डंडों की मार के बावजूद अपने कर्तव्य को नहीं भूले. किसी ने इसके लिए पुलिस की प्रशंसा नहीं की. इससे ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण कुछ नहीं हो सकता.

हां कुछ लोग हैं जो अब भी अपनी जिम्मेदारियों से भाग रहे हैं और ये वही लोग हैं जो खुद को किसानों का मसीहा बताते हैं. इनमें राकेश टिकैत भी हैं. जो अब ये कह रहे हैं कि पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर गोली क्यों नहीं चलाई? सोचिए ये नेता पुलिस को कह रहे हैं कि उसे गोली चलानी चाहिए थी.

लेकिन अगर ऐसा हुआ होता तो यही नेता फिर पुलिस और सरकार पर लोकतंत्र की हत्या का आरोप लगाते और ये कहते नहीं थकते कि देश में अघोषित इमरजेंसी लग गई है. इसलिए आज आपको राकेश टिकैत की ये बातें भी सुननी चाहिए, जो डबल स्टैंडर्ड का सबसे सटीक उदाहरण पेश करती है.

आज भारत के उन 134 करोड़ 95 लाख लोगों के विश्वास को भी समझने का दिन है, जिनके मन में देश और देश के गौरव का स्थान सर्वोच्च है. क्योंकि अक्सर जब हिंसा होती है तो मुट्ठीभर लोगों को ही भारत मान लिया जाता है और उन लोगों को हम भूल जाते हैं, जो भारत की मूल भावना में हैं.

आज हम ये भी कहना चाहते हैं कि अगर पुलिस 26 जनवरी को हुई हिंसा को एक केस स्टडी बनाना चाहती है तो वो उन लोगों पर भी कार्रवाई करे, जिन्होंने देश के मान और सम्मान पर हमला किया. हम चाहते हैं कि हिंसा के दौरान और हिंसा से पहले फेक न्यूज फैलाने वाले डिजायनर पत्रकारों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की जाए और उनकी गिरफ्तारी हो. कांग्रेस के उन नेताओं पर भी एक्शन लिया जाए, जिन्होंने झूठी खबरें फैलाकर माहौल बिगाड़ने की कोशिश की.

आज हम सरकार से भी ये मांग करना चाहते हैं कि प्रदर्शनों को लेकर नियमों की एक रेखा खींची जाए ताकि प्रदर्शनों के नाम पर वो सब ना हो, जो हमने 26 जनवरी को देखा. क्योंकि जो उग्र भीड़ लाल किले में घुस सकती है, वो आप लोगों के घर में भी घुस सकती है और कांग्रेस के उन नेताओं के घर को भी तहस-नहस कर सकती है, जो इन मुट्ठी भर लोगों को भड़काकर उन्हें बढ़ावा देते हैं.

हम आज सुप्रीम कोर्ट से भी ये मांग करते हैं कि वो ऐसे लोगों के खिलाफ कार्रवाई करके एक मिसाल पेश करे ताकि अगली बार जब कोई देश के स्वाभिमान को लूटने की कोशिश करे तो वो ऐसा करते हुए कई बार सोचे और हमारे गणतंत्र का सिर दुनिया के सामने कभी शर्म से नहीं झुके.

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