कवि केदारनाथ सिंह पर विशेष : बाबूजी की असल मुस्कान गांव में ही देखने को मिलती थी
उनके चेहरे पर प्यारी सी खिलखिलाहट असल मायने में तभी दिखाई पड़ती जब वे गांव में होते। गांव केवल उनकी स्मृतियों का हिस्सा नहीं, बल्कि उनके संवेदन की जलवायु था।
नई दिल्ली। मैं हमेशा से यह महसूस करती आई हूं कि औपचारिकता से बातों की जीवंतता बाधित होती है और इसलिए साहित्य के समानांतर साहित्यकारों के सामान्य दैनिक जीवन की बातचीत का इतिहास (यदि संभव हो तो) हमारे लिए अधिक महत्वपूर्ण थाती साबित होगा। यह भूमिका यहां इसलिए है क्योंकि मैंने बाबूजी की कविता को उनके व्यक्तित्व, उनके हाव-भाव और बातों में बनते हुए जीवंत देखा है।
उनकी कविताई से मेरा परिचय तब से है जब मैं छोटी थी और वो मेरे लिए दो पंक्तियों की तुकबंदियां गढ़ते। वो पंक्तियां दरअसल उनके बात कहने का ढंग ही थीं। मन बसता था गांव में यह बात मैं बिना झिझक कह सकती हूं कि वे अपने दिल्ली के मित्रों की अपेक्षा गांव के मित्रों के साथ अधिक सहज, खिलखिलाते और रचनात्मक ऊर्जा से भरे दिखाई देते। उनके चेहरे पर प्यारी सी खिलखिलाहट असल मायने में तभी दिखाई पड़ती जब वे गांव में होते। गांव केवल उनकी स्मृतियों का हिस्सा नहीं, बल्कि उनके संवेदन की जलवायु था। यहां उनके दो मित्रों का उल्लेख जरूरी है, जो गांव में उनके साथी रहे। उनमें से एक रामकिशोर बाबा (रामकिशोर सिंह), जो अब इस दुनिया में नहीं हैं और पंडित जी यानी पं रमाशंकर तिवारी अब भी उनके अनन्य साथी थे।
80 वर्ष से अधिक की उम्र में भी वे साइकिल चला सकते हैं और जीवन को बिंदास जीते हैं। बाबूजी, पंडित जी और रामकिशोर बाबा की तिकड़ी पूरे गांव में मशहूर थी। उनसे जुड़े अनेक किस्से मुझे अब भी हंसा जाते हैं। उम्र के उस पड़ाव पर, जहां बहुत से लोग उदासीन और गंभीर हो जाते हैं, इन सबकी चुहलबाजियां और शरारतें हम सबको तरोताजा कर देतीं। वो हमारी शरारतें इन तीनों के साथ चकिया गांव से रानीगंज बाजार जाने का रास्ता हम बच्चों के लिए एक मनोरंजक खेल की तरह होता और लगभग दो किलोमीटर का पैदल सफर पलक झपकते ही पूरा हो जाता था। लगभग 1993-94 तक हम सपरिवार गर्मी की छुट्टियों में दो महीने के लिए गांव जाते। उधर कलकत्ते से बुआ का पूरा परिवार वहां इकट्ठा होता था और शुरू होती थी हमारी धमाचौकड़ी, जिसमें अपने तरीके से बाबूजी भी शामिल होते थे।
बातों-बातों में उनके हाथ से चाबी हथिया लेने का हुनर सुनील भईया और राजेश के पास था और चोरी खुल जाने के डर से हिस्सा हम सबको मिलता। बाबूजी इस शरारत को हंसकर स्वीकार करते थे। ये सारी कवायदें अब भी एक समानांतर जीवन के सदृश मालूम होती हैं। गांव के बगीचे में जाकर आम तोड़कर खाना एक अलग अनुभव था। बीजू आम (छोटे आम) के पेड़ों पर से आम तोड़ने के लिए मैं फटाफट पेड़ पर चढ़ जाती लेकिन चूंकि वे वृक्ष अपेक्षाकृत छोटे होते हैं, बाबूजी काले बकुलीदार छातों की सहायता से कम समय में मुझसे अधिक आम बटोर लेते। उस बकुली से आम आसानी से टूट जाते और नीचे गिरने की बजाय उस छाते के अंदर ही शरण पा लेते। आम तोड़ने का वो तरीका विलक्षण था।
उन आमों को खाकर और वापस उसमें हवा भरकर फुलाकर बाबूजी और पंडित जी ने बाल्टी में रामकिशोर बाबा के लिए रख दिया था और उनके आने पर खूब बोली सुनी थी। इस तरह केवल हमारे लिए ही नहीं, बाबूजी के लिए भी गांव की दुनिया एक समानांतर जीवन की तरह थी। परिवार से था खास जुड़ाव बाबूजी की बातें अनुभव का खजाना होतीं और सुनाने का ढंग बेहद दिलचस्प। उनके मुंह से कई किस्से हम सैकड़ों बार सुन चुके होते लेकिन हर बार वे नए से लगते। जेएनयू के घर में जाड़े की रातों में बाबूजी के तलवे में कडु़आ तेल लगाते हुए उनसे बातें करना मेरी अनमोल स्मृतियों में से एक है। इस दौरान मैं, ईया और बाबूजी इत्मिनान से घर-बार और संसार की बातें करते।
बाबूजी बेहद पारिवारिक व्यक्ति थे। जब तक मेरी ईया जीवित थीं, बाबूजी की चिंता का केंद्र वही थीं और मेरी ईया की चिंता के केंद्र उनके बबुआ यानी बाबूजी। छोटी-मोटी झिड़कियां दोनों एकदूसरे को सुनाते लेकिन शाम की चाय दोनों साथ ही पीते। किसी पुरबिया से मिलकर वे भोजपुरी में ही बात करना पसंद करते थे। भोजपुरी बोलते हुए वे लगभग वैसे ही प्रसन्नचित्त दिखाई देते, जैसे गांव जाने पर। मेरी बुआ बाबूजी की सोच का अभिन्न हिस्सा थीं। उन्हें अधिक पढ़ने-लिखने का अवसर नहीं मिला लेकिन बहुत से पढ़े-लिखों पर भारी पड़ सकती हैं। उस पीढ़ी में भाई-बहन का ऐसा रिश्ता मुझे दुर्लभ दिखाता है।
दिल्ली में ठंड अधिक हो तो कोलकाता, उड़ीसा या आस-पास कोई साहित्यिक कार्यक्रम हो तो वहां से कोलकाता, दिल्ली से मन ऊब गया तो कोलकाता, यानी बाबूजी कोलकाता जाने के बहाने तलाशते रहते और वहां से तरोताजा होकर लौटते। हमारी बहुत चिंता थी मैंने बाबूजी के मुंह से किसी साहित्यकार मित्र की निंदा कभी नहीं सुनी। उनकी बातचीत का केंद्र अक्सर घर ही हुआ करता। साहित्य कभी-कभी घूमता-टहलता उसमें आता भी तो किस्सागोई की शक्ल में। सुबोध से उनकी बातचीत ‘फ्रंटलाइन’(पत्रिका) से शुरू होकर क्रिकेट, समाज, देश और उसकी राजनीति तक पहुंच जाती। गलत शेर सुनकर वे बेहद कुपित हो जाते थे। मैं बहुत छोटी थी, जब मां नहीं रही। उनकी कुछ स्मृतियां कौंध के रूप में अब भी मुझे जीवन देती हैं। मां के जाने के बाद बाबूजी की उदासी स्वाभाविक थी।
मां के बारे में बात करते हुए उनकी आंखों में वह वीरान उदासी साफ दिखाई पड़ती। एक दिन उदासी से सने हुए गर्व के साथ मुझे बताने लगे, ‘तुम्हारी मां को पढ़ना बहुत पसंद था। एक कहानी या उपन्यास खत्म होते न होते दूसरे की फरमाइश कर देतीं।’ इस उदासी से जूझते हुए बाबूजी और हम बच्चों ने एक दूसरे को संभाल लिया और एक दूसरे को पाल भी लिया-कभी उन्होंने हमें और कभी हमने उनको। जब हम कहीं बाहर होते या बीमार होते तो हमारी चिंता में घुलते रहते। दीदी जब कभी घर से बाहर जाती और उसे लौटने में देर हो जाती थी तो वे परेशान होकर कहते कि आने दो उसे, मैं डांटता हूं।’ जैसे ही दीदी वापस आती तो एक पिता का-सा चेहरा बनाकर कहते, ‘देर क्यों हो गई बेटा?’ और हम हंस पड़ते।
रचना सिंह (एसोसिएट प्रोफेसर,हिंदू कॉलेज)
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